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04/04/2017

ऐ शहर मुझे तेरी औक़ात पता है

तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है,
और तू मेरे गांव को गँवार कहता है।

ऐ शहर मुझे तेरी औक़ात पता है,l
तू बच्ची को भी हुस्न ए बहार कहता है।

थक गया है हर शख़्स काम करते करते,
तू इसे अमीरी का बाज़ार कहता है।

गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,
तेरी सारी फ़ुर्सत तेरा इतवार कहता है।

मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं,
तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है।

जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा,
तू उन माँ बाप को अब भार कहता है।

वो मिलने आते तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है।

बड़े-बड़े मसले हल करती थी पंचायतें,
अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है।

बैठ जाते थे अपने पराये सब बैलगाडी में।
पूरा परिवार भी न बैठ पाये उसे तू कार कहता है।

अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं,
तू इस नये दौर को संस्कार कहता है।

1 comment:

  1. मित्र किसी शायर की रचना उसके नाम से पोस्ट हो तो ज्यादा उचित है। अगर ऐसा नही होता है तो यह कॉपी राइट्स नियम का उलंघन है आपको शायर का नाम देना चाहिए और अगर शायर का नाम नहीं मालूम तो अज्ञात लिखना चाहिए था

    ये रचना गुजरात के कवि हरेन्द्र सिंह कुशवाह एहसास जी की है उनका नाम भी आप लिखें

    https://youtu.be/JHL2oFC6iOo

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